तन मन धन सब हे तेरा

                                            तन- मन -धन


' तन- मन -धन सब हे तेरा ' भजन और गीत जब हम सुनते हे उस समय हर व्यक्ति की  सोच वैसी ही  बन जाती हे | और वाकई उस समय हर व्यक्ति का व्यव्हार भी वैसा ही हो जाता हे | और अपने आप को प्रदर्शित भी वैसा ही करने लगता हे | लेकिन जैसे ही भजन या गीत का असर ख़त्म होने लगता हे हमे न तन का अर्थ पता होता हे न मन का  और धन की स्थिति के नाम पर बैंक बैलेंस nil हो जाता हे | सारा धन जो हमारे पास था निर्धनों में बंट  गया बाकि  बचा खुचा भगवान के श्री चरणों में अर्पण कर  दिया और गा दिया ' तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा ' हो गया तन- मन- धन सब हे  तेरा | 
                                                           यह  स्थिति सिर्फ हमारी ही नहीं बल्कि उन बड़े - बड़े भक्तो की भी हे जो बड़े - बड़े छापे  तिलक लगाते  हे और सत्संगो में आदर्श की बाते कर दुनिया से तन-  मन -धन अर्पण करवाते हे चाहे खुद करे या न करे और ज्यों ही सत्संग  का असर ख़त्म होता हे हम भी तेरी- मेरी, सच- झूट, नफा- नुक्सान ,लड़ाई -झगड़ा ,गाली -गलोच की सत्संग  शुरू कर देते हे | ठीक ऐसी ही  स्थिति  होती हे जब हम किसी के दाह संस्कार  में जाते हे | शमशान घाट पहुंचने  के बाद हम सारे दुःख- दर्द, तेरी -मेरी, नफा- नुकसान, मन- मुटाव, लड़ाई -झगड़ो को  भूलाकर दुनिया के  अंतिम सच को प्रणाम करते हे|  तब हमें एक  ही बात याद आती हे की एक दिन सभी को इसी जगह आना हे और मिटटी   हो जाना हे साथ कुछ नहीं जाना हे जैसे ही हम नाह धोकर पाक साफ़ होकर मार्किट में आते हे दुनियादारी में उलझकर दुनिया का अंतिम सच हमे हमारे क्रोध- अहंकार, अहम्- वहम, धन- दौलत, आरोप- प्रत्यारोप, गाली- गलोच, लड़ाई- झगडे में परिभाषित होता नज़र आता   हे |
                               इसका अर्थ यह हे की हम तन- मन- धन को को या तो ईश्वर के सामने स्वीकारते हे या यमराज के सामने बाकि  दुनिया की किसी भी अदालत में चले जाए न तो हमे तन का अर्थ समझ में आता हे न मन का और धन को तो हमने पंगु बना दिया हे | शादी ब्याह में फ़िज़ूल खर्ची से लेकर दहेज़ के नाम पर 'धन ' को कलंकित होना पड़ा हे किसी को नीचा  दिखने के लिए तन मन का कोई रोल नहीं हे सिर्फ धन का बल ही काफी हे रिश्वत का लेन देन करके हम भ्रष्टाचार का शिखर धन के माध्यम से ही छू रहे हे | धन को हमने वो बला बना दिया  हे जिसके बिना न हम जी सकते  हे न मर सकते  हे | पराकाष्ठा तो तब हो जाती हे जब कुछ लोग अपने  प्रतिद्वंदियों व रिश्तो को शमशान तक पहुंचने के लिए धन की सुपारी तक दे देते हे | धन की बर्बादी धन का दुरूपयोग आज जिस रूप में हमारे समाज में बढ़ रहा हे उसी वजह से तन और मन की दूरिया धन से  बढ़ती जा रही हे और यही वजह हे की कहने में हम तन- मन- धन सब हे तेरा भजन गा  लेते हे  लेकिन तन- मन- धन के हम इतने टुकड़े कर  चुके हे की इन्हे एक साथ मिलाना मुश्किल हे जो बात हम ईश्वर और यमराज के सामने स्वीकारते  हे उसे हम इंसान के सामने स्वीकारने में हिचक महसूस करते हे | जिस दिन हम हमारी कमियों को इंसान के सामने दिल से  स्वीकारना शुरू कर  देंगे,  तन- मन- धन की परिभाषा ठीक से समझ लेंगे ,या लोगो को समझाने में कामयाब हो जाएंगे उसी दिन से कलयुग ख़त्म होने लगेगा और हम सतयुग में प्रवेश करने लगेंगे |

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बेटी हिंदुस्तान की

आधुनिक और प्राचीन जीवन का असमंजस

मनुष्य एक प्राकृतिक उपहार है लेकिन मशीनी होता जा रहा है